कथाकार: June 2020

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तस्वीर -कविता


तस्वीर -कविता 

कुछ तस्वीरें वीरान पड़े दीवार 
पर इसलिए टाँग कर छोड़ दी
जाती है ताकि दीवारों के देख
न पाने का मज़ाक बनता रहे।

कुछ मोहब्बत दीवार पर
टँगी तस्वीर जैसी होती है! 
जिसमें प्रेमी-प्रेमिका अपने 
यादों की तस्वीर को एक-दूसरे
के दिल में टाँग कर, छोड़ जाते हैं।

यादों को क़ैद रखना
प्रेम को हास्यास्पद बनाता है !

तुम और रेलगाड़ी -कविता


तुम और रेलगाड़ी 

तुम देखना मुझे गुज़रते हुए ट्रेन की खिड़कियों से
मैं खाली पड़ी ट्रेन की एक उदास बोगी कि तरह
कहीं स्टेशन पर बैठा मिलूँगा।

तुम देखना जैसे पत्थर दबा होता हैं पटरियों के नीचे
वैसे ही मेरे सीने में दबा हुआ है तुम्हारी कई यादें।

तुम देखना तुम्हारा हाथ थामे युवक ट्रेन की शोर से
हाथ छोड़ मूँद लेगा अपना कान।
तुम देखना उसी शोर में मैं तुम्हारी धड़कन सुन लूँगा 
जैसे स्टेशन पर खाली पड़ी एक बोगी 
हर रोज सुन लेता है गुज़रते हुए इंजन की धड़कन।

तुम देखना ध्यान से एक खाली पड़ी ट्रेन की बोगी 
एक उदास प्रेमी जैसा दिखता है। 

मौसम-कविता


मौसम


आषाढ़ के महीने में

जैसे मेंढकी की गीत

जेठ की दुपहरी में
बाँहें फैलाये जैसे बरगद की छाँह

पूस की रात में
जैसे गरम थपकियों की नींद

लड़कियाँ न जाने कितने 
ही मौसम बन के आती है
लड़कों की ज़िंदगी में!

लड़कियाँ प्रतीक्षा में रहती हैं
लड़कों का मौसम बन के आने का
किन्तु लड़कों का ह्रदय निष्ठुर हो चुका
होता हैं और वो लिखते
रहते हैं मौसम पर कोई कविता।

लड़कों, कभी तुम्हें लू लगे या 
तुम्हारे शरीर पर वज्रपात गिरे,
तुम महसूस करना मौसम के सभी
वेदनाओं को वैसे ही
जैसे लड़कियाँ अकेली उन
मौसमों में गुज़ारती थी अपने दिन।

कमाने गए लड़के - कविता

कमाने गए लड़के - कविता 


शहर को अलविदा करते हुए
तुम्हारे साथ बिताए सारे लम्हों 
को गठरी में बाँध ली है।

मैं उन यादों की गठरी को
गाँव के स्टेशन पर खोल दूँगा।

शहर जाते हुए लड़के
उन यादों को देखे और
समझ लें की शहर से 

गठरी में मिठाइयाँ लाई जाती हैं।
नाकाम इश्क़ की यादें नहीं !

पलायन -कविता




पलायन - 






  कुछ दिनों में

  हम सब ये मान लेंगे।
  समय से ज़्यादा,चलायमान होता है
  ग़रीब आदमी का पाँव।




































पितृ दिवस - 2020


पितृ दिवस

गिल्ली-डंडा के बीच खेल में,
हाथ में छड़ी लिए
कान पकड़,
बाबूजी, हाँकते हुए जब घर ले जाते थे

तो मानो लगता था
जैसे कोई केवट
चप्पू चलाते हुए
अपना नौका किनारे ले जाता हो।

बेटा हो या गृहस्थ कोई भी नौका को
मँझधार में डूबने नहीं दिया बाबूजी ने।


मिट्टी


मिट्टी जो मंदिर, मस्ज़िद और मीनारों 
के निचे दबी होती है
उस मिट्टी को इंसान अपने 
मस्तिष्क पर लगाता हैं। 

मिट्टी जो अपने कोख़ से 
अन्न पैदा करती है
अपने भीतर लाशों को दफ़न करती हैं, 
उस मिट्टी की सौदा करता है इंसान। 

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