कथाकार: June 2018

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ख़त

एक पैग़ाम को लिए वहीं छिपा हूँ मैं,
तुम्हारे एक तलब के लिए बेक़रार सा,
उम्र ढल गए है,ख़ुद-परस्ती में जी रहा,
सादे लिबासों में अब खुद को दफ़न करना है,
शिद्दत से पढ़ लेना, न जाने यही आखरी हो..

तुम्हारा,

ख़त

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