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बहुत मुश्किल था
पिताजी का हाथ बननाउससे भी ज़्यादा कठिन थाउनके हाथों का औज़ार बननाजिससे वो पाँचों उंगलियों में फँसाकरफ़सल काटते थेमैं लिख भी नहीं सकताक़लम को पांचों उंगलियों से पकड़ केसोचता थाकिताबों का भार ढोना कठिन थाफिर ख़याल आयापिताजी की पीठ वर्षों सेधूप, वर्षा, मिट्टी का भार ढो रही थीमैंने देखापिताजी काकुदाल उठाकरमेरे सपनों से कहीं ज़्यादा भारी थापिताजी पूरी उम्ररेगिस्तान में उगे बबूल के पेड़ बने रहेउनके छाए में खिल सकामैं, एक कपास का पौधा।― कुन्दन चौधरी
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पिताजी का हाथ - कविता
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