कथाकार: कविता - पैदल घर जाते हुए लोग

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कविता - पैदल घर जाते हुए लोग



"पैदल घर जाते हुए लोग" 
कहीं वक़्त न ठहर जाए, तुम ठहर जाओ,
कुछ दिनों की बात है,जहाँ हो वहीं रुक जाओ।

जिन शहरों के लिए तो कल तक ग़रीब एक महामारी,बीमारी थी,
जरूरतें कैसे होंगी पूरी,इसलिए लोगों में तुम्हें रोकने की खुमारी थी।

तुम तो एक रोटी से भी भूख मिटा लेते थे,
कई दिन बिना खाये भी पेट को मना लेते थे।

लोगों की रहम तो तब जागी है जब तुम सड़क पे उतर आये हो,
वो भूख की बातें कर रहे जो महीनों की राशन पहले ख़रीद आये हो।

तुम्हारे लिए सरकार के पास भी धन नहीं है,
तुम पैदल जाओ अपने घर, जेट में ईंधन नहीं है।

तुम जो लौटोगे कल इस शहर में, तुम्हारा कोई तलबगार न होगा,
कल भी बातें करते थे ग़रीबी की, आज भी कोई मददगार न होगा।

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